"किडनी फेल्योर" को आयुर्वेद में व्रक्क सन्यास या व्रक्काकर्मण्यता नाम से जाना जाता है। सन् 2004 से "दिव्य चिकित्सा भवन" में "किडनी फेल्योर" पर निरन्तर प्रयोग, अनुसंधान और चिकित्सा कार्य चल रहा है।
हर साल लगभग 500 से भी अधिक रोगी "दिव्य चिकित्सा भवन" में भर्ती होकर चिकित्सा लाभ प्राप्त करते हैं और इससे अधिक किडनी फेल्योर रोगी यहॉं की ओपीडी में आकर लाभ उठाते हैं।
देश का दुर्भाग्य है कि अंग्रेजी शासनकाल में डाली गयी नींव का आज भी जनमानस पर ऐसा गहरा प्रभाव है कि चाहे बीमारी छोटी हो या बडी कोई भी व्यक्ति सबसे पहले एलोपैथिक चिकित्सा में ही जाता है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि योग्य आयुर्वेद चिकित्सक सब जगह उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि अधिकांश आयुर्वेद चिकित्सक स्वयं एलोपैथी टीटमेण्ट देते पाये जाते हैं। जबकि देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने अपने एक फैसले में कह दिया कि एलोपैथिक चिकित्सा शरीर में एक प्रकार का "रिएक्शन" करती है जिससे रोग केवल "न्यूट्रलाइज्ड" हो जाता है। ऐसे रिएक्शन के परिणाम स्वरुप रोग तो ठीक होता नहीं, पर शरीर में दूसरे दुष्प्रभाव अवश्य हो जाते हैं।
किडनी फेल्योर का रोगी जब एलोपैथिक चिकित्सा शुरु करता है तो अंत में एलोपैथ डायलेसिस और टान्सप्लाण्ट जैसी कष्टकारी, मँहगी और जटिल प्रक्रिया में ले जाता है।
हर दस में से एक हिन्दुस्तानी किडनी रोग से ग्रस्त है। गलत खान-पान, समुचित व्यायाम और विश्राम का अभाव, सही दिनचर्या का पालन न करने, निरन्तर, दबाव और चिंता से ग्रस्त रहने, अन्धाधुन्ध एण्टीबायोटिक पेन किलर का प्रयोग भी किडनी की क्षमता को कम कर किडनी को बीमार कर रहा है।
उच्च रक्तचाप और मधुमेह के रोगियों को किडनी फेल्योर का खतरा सर्वाधिक होता है। आयुर्वेद में प्राचीन काल से ही व्रक्क विकार की चिकित्सा होती आयी है। "त्रिमर्म" के अन्तर्गत व्रक्क का भी ग्रहण किया गया है।
यह भी देखा जा ऱ्हा है कि कम पढे-लिखे व्यक्ति जो "डायलेसिस" के बारे में जानते तक नहीं उन्हें डायलेसिस के बारे में पूरी जानकारी दिए बिना ही नर्सिंग होम या डायलेसिस सेण्टर "डायलेसिस" में डाल देते हैं। कई रोगियों का अंत "डायलेसिस" कराते-कराते ही हो जाता है।
इसलिए एलोपैथिक चिकित्सा की सच्चाई और उसकी सीमा को समझते हुए ही किडनी फेल्योर रोगियों को "एलोपैथिक चिकित्सा" में जाना चाहिए तथा उसमें समय लगाना चाहिए।
किडनी फेल्योर का रोगी एलोपैथिक चिकित्सा में शुरुआती दौर में जाता है, किन्तु जैसे-जैसे दवा होती जाती है वैसे-वैसे यूरिया-क्रिटनीन बढता जाता है। शरीर में निर्बलता भी बढती जाती है। एक दिन जब उसे डायलेसिस की सलाह दे दी जाती है या डायलेसिस कर दी जाती है तब रोगी या उसके घर वाले आयुर्वेद चिकित्सा ढूँढकर शुरु करते हैं। इसलिए किडनी फेल्योर रोगियों को चाहिए कि रोग का पता चलते ही "दिव्य चिकित्सा भवन" में चिकित्सा परामर्श लें। कई डायलेसिस सुविधा वाले अस्पतालों में बहुत कम यूरिया और क्रिटनीन होने पर भी डायलेसिस शुरु कर दी जाती है।
किडनी फेल्योर में चिकित्सा भवन द्वारा की जाने वाली आयुर्वेद चिकित्सा प्रभावशाली है कि जिस दिन से दिव्य चिकित्सा भवन की आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रारम्भ होती है उसी दिन से नेफ्रान्स का "डिजनरेशन" रुक जाता है और उनका "रिजनरेशन" प्रारम्भ हो जाता है। दिव्य चिकित्सा भवन में 70 बार डायलेसिस करा चुके रोगियों तक में सफलता मिली है, डायलेसिस बन्द होकर केवल आयुर्वेद चिकित्सा से जीवन का सफर चल रहा है पर अच्छा हो यदि डायलेसिस के पूर्व रोगी आयुर्वेद चिकित्सा हेतु दिव्य चिकित्सा भवन में पहुँचे।
सीरम क्रिटनीन 6-7 के आस-पास है तो एक बार दिव्य चिकित्सा भवन की चिकित्सा से रोगी् विशेष रुप से लाभान्वित होते हैं अत चिकित्सा में विलम्ब नहीं करना चाहिए।
यदि डायलेसिस भी शुरु करा दिया हो तो एक बार दिव्य चिकित्सा भवन पहुँचकर सलाह लेनी चाहिए क्योंकि अनेक बार डायलेसिस करा चुके कई रोगियों में सफलता मिली है डायलेसिस छूटी है।
प्रयोगों और चिकित्सा कार्य के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि जिन रोगियों का क्रिटनीन 15-16 तक पहुँच गया, उन्हें भी दिव्य चिकित्सा भवन की आयुर्वेद चिकित्सा से आशातीत लाभ हो रहा है।
"दिव्य चिकित्सा भवन" आयुर्वेद हास्पिटल एक चैरिटेबल अस्पताल के रुप में कार्य कर रहा है। इसलिए यहॉं चिकित्सा हेतु पहुँचने में न तो कोई विशेष औपचारिकता है, न किसी विशेष तैयारी की जरुरत है। यहॉं इलाज हेतु दोनों व्यवस्थायें की गयीं हैं पहला रोगी को भर्ती करके और दूसरा ओपीडी।
1- आइपीडी विभाग - दिव्य चिकित्सा भवन में रोगियों को भर्ती कर चिकित्सा करने की पूर्ण वैज्ञानिक व्यवस्था है। यहॉं रोगियों को भर्ती कर चिकित्सा व्यवस्था की जाती है, दिव्य चिकित्सा भवन के चिकित्सकों द्वारा नियमित परीक्षण किया जाता है और प्रशिक्षित नर्सों (उपचारिकाओं) द्वारा देख-रेख की जाती है। उचित औषधियॉं, उचित पथ्याहार दिया जाता है।
आईपीडी में रहकर चिकित्सा कराने वाले रोगी को "पंचकर्म चिकित्सा" (Purification therapy) दी जाती है जिससे शरीर में विजातीय द्रव्य बाहर होते जाते हैं और शरीर निर्विकार हो जाता है और औषधियॉं बहुत ही प्रभावी होती हैं।
उचित पथ्य (आहार) व्यवस्था - चिकित्सा में उचित पथ्य (आहार) सेवन की महत्वपूर्ण भूमिका है। आयुर्वेद का उपदेश है कि "विनापि भेषजैर्माधि पथ्यादेव निवर्तते" अर्थात् अनेक रोग तो केवल पथ्याहार सेवन से ही दूर हो जाते हैं।
एलोपैथ चिकित्सा में "डाइट चार्ट" बनाने पर तो ध्यान दिया जाता है।
इसका ध्यान और ज्ञान एलोपैथ में है ही नहीं जिससे किडनी रोगी के कम भोजन लेने के बावजूद उसे अरुचि (Anroxic), वमन प्रवत्ति (Vometing Tendency) कभी दस्त कभी कब्ज तो कभी गैस तो कभी उल्टियॉं होने लगती हैं।
चिकित्सा के तीन प्रमुख अंग (Treatment) आहार (अन्न) एवं विहार) इसके बिना चिकित्सा सफल नहीं हो सकती इसलिए "दिव्य चिकित्सा भवन में आहार मात्रा और आहार चिकित्सा पर विशेष ध्यान दिया जाता है जिससे एक सप्ताह में किडनी रोगी की पाचन सम्बन्धी समस्या दूर हो जाती है।
इस समस्या के दूर हो जाने से रोगी में ओज, तेज, बल, उत्साह दिखने लगता है और उनमें जीवन के प्रति आशा जाग्रत होने लगती है।
इस कार्य के लिए "दिव्य चिकित्सा भवन" में पथ्यशाला (आहार शाला) का संचालन किया जाता है जहॉं से रोगियों और उनके साथियों को उचित आहार मिलता है।
प्रामाणिक औषधिया - "दिव्य चिकित्सा भवन" में रोगियों के लिए प्रयोग की जाने वाली औषधियों की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि श्रेष्ठ और प्रामाणिक औषधियॉं ही जीवन को बचाने और रोग निवारण में समर्थ होती हैं। रोगियों को प्रामाणिक, गुणकारी और प्रभावशाली औषधियॉं प्राप्त हो, इसके लिए दिव्य चिकित्सा भवन में औषधि भी निर्मित करायी जाती है तथा प्रामाणिक फार्मेसियों की औषधियॉं ही प्रयोग की जाती हैं।
ओपीडी विभाग - दिव्य चिकित्सा भवन के ओपीडी में ऐसे रोगियों की चिकित्सा सुविधा है जिन्हें भर्ती करने की जरुरत नहीं है। ओपीडी विभाग में ऐसे रोगियों का परीक्षण कर विधिवत् चिकित्सा व्यवस्था, आहार व्यवस्था और योग प्राणायाम का प्रतिदिन निर्देशन किया जाता है।
यदि आप किडनी रोग से ग्रस्त हैं तो किसी भी दिन दिव्य चिकित्सा भवन की ओपीडी में आकर चिकित्सा परामर्श और औषधियॉं ले सकते हैं।
दिव्य चिकित्सा भवन में चिकित्सा कराने के लिए आते समय अपने पूर्व इलाज और जॉंचों के पर्चे अवश्य लेकर आयें।
दिव्य चिकित्सा भवन में चिकित्सा व्यवस्था में पूर्णतया वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का आधार लिया जाता है। चिकित्सा प्रारम्भ करने के पहले भी रक्त, मूत्र आदि परीक्षण कराया जाता है और चिकित्सा के बीच-बीच में रक्त जॉंच कराकर सुधार और प्रगति का आंकलन किया जाता है।
जो रोगी दिव्य चिकित्सा भवन की ओपीडी में भर्ती होकर चिकित्सा कराते हैं उनमें तो हर सप्ताह रक्त और मूत्र की जॉंच कराकर सुधार और प्रगति देखी जाती है और चिकित्सा व्यवस्था परिवर्तन, परिवर्धन किया जाता है।
दिव्य चिकित्सा भवन के आईपीडी में भर्ती रोगियों के रक्त जॉंच के आधार पर जब प्रगति देखी जाती है तो चामत्कारिक परिणाम प्राप्त होते हैं। जो रोगी सालों से एलोपैथिक इलाज लेते रहते हैं पर यूरिया, क्रिटनीन कन्टोल नहीं हो पा रहा है। उनमें पहले सप्ताह से ही यूरिया, क्रिटनीन घटने लगते हैं, हेमोग्लोबिन बढने लगता है धीरे-धीरे मूत्र में प्रोटीन जाना कम होता है।
अनेक मधुमेह जन्य व्रक्काकर्मण्यता के रोगियों में तो दूसरे सप्ताह में ही इंसुलिन बन्द हो जाती है। दूसरे सप्ताह से ही रोगी में स्फूर्ति, उत्साह बढने लगता है और रोग भय समाप्त होने लगता है।
जैसा कि पूर्व में भी बताया जा चुका है कि "दिव्य चिकित्सा भवन" एक चैरिटेबल संस्थान के रुप में कार्य कर रहा है और यह संस्था "नॉन प्राफिट" के आधार पर चलायी जा रही है इसलिए यहॉं का खर्च एलोपैथिक अस्पतालों की अपेक्षा बहुत कम है। प्रथम बार रोगी के आने पर रुपये 100-00 केवल रजिस्टेशन शुल्क लिया जाता है। इसके बाद जितनी बार रोगी आता है मात्र 10-00 रुपये ही पर्चा नवीनीकरण शुल्क लिया जाता है।
औषधि खर्च - रोगी को औषधियॉं लिख दी जाती हैं जिन्हें वह यहॉं स्थापित औषधि कक्ष से खरीद लेता है। औषधि सेवन विधि यहॉं के डॉक्टर तथा नर्सेज रोगी को समझाती हैं और सेवन कराती हैं। औषधि खर्च रुपये 100-00 से रुपये 400-00 तक प्रतिदिन हो जाता है।
जॉंच खर्च - रोगी के रक्त, मूत्र, सोनोग्राफी आदि का खर्च रोगी को वहन करना पडता है।
पथ्याहार खर्च - रोगी को पथ्याहार, गो तक्र, फल-दूध का खर्च स्वयं वहन करना पडता है।
रोगी के साथ वालों का भोजन - जो व्यक्ति रोगी के साथ आते हैं उनके भोजन के लिए संस्था द्वारा भोजनालय चलाया जा रहा है जिसमें सादा भोजन मिलता है।
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